साहित्य-संस्कृति के इतिहास में कृष्णा सोबती के नाम बहुत कुछ दर्ज है। उनके लिखे अल्फाज जिंदगी के हर अंधेरे कोने में दिया बनके कंदीलें जलाने को बेचैन, बजिद और तत्पर रहते मिलते हैं। फूलों को अतत: सूखना ही होता है-बेशक जीवन के फूलों को भी! लेकिन एक समर्थ और सार्थक कलम उन्हें सदैव महकाए रखती है। ‘उम्मीद’ शब्द को अपने तईं जिंदा रखने के लिए ताउम्र संघर्षरत और रचनात्मकता से आंदोलनरत रहती है। ऐसी एक कलम का नाम कृष्णा सोबती था, जिनका निधन 25 जनवरी 2019 को तब हुआ था जब देश औपचारिक रूप से गणतंत्र दिवस मनाने की तैयारियों में मसरूफ था। तब भी तंत्र हावी था और गण गौण। इन्हीं चिंताओं के साथ गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर, आज के दिन कृष्णा जी ने आखरी सांसें ली थीं।
अविभाजित भारत के पाकिस्तान में हुआ जन्म
कृष्णा सोबती का जन्म 18 फरवरी 1925 को अविभाजित भारत के पाकिस्तान के गुजरात में हुआ था। उपन्यास और कहानी विधा में उन्होंने जमकर लेखन किया। उनकी प्रमुख कृतियों में डार से बिछुड़ी, मित्रो मरजानी, यारों के यार तिन पहाड़, सूरजमुखी अंधेरे के, सोबती एक सोहबत, जिंदगीनामा, ऐ लड़की, समय सरगम, जैनी मेहरबान सिंह जैसे उपन्यास शामिल हैं। बादलों के घेरे नामका उनका कहानी संग्रह काफी चर्चित रहा है। अपने उपन्यासों के जरिए राजनीति और समाज की नब्ज टटोलने में माहिर थी। लेखनी के माध्यम से मध्यमवर्गीय महिला की आवाज उठाने कृष्णा सोबती का हाथ कोई नही पकड़ सकता हैँ।
कृष्णा सोबती का कार्य क्षेत्र
बादलों के घेरे’, ‘डार से बिछुड़ी’, ‘तीन पहाड़’ एवं ‘मित्रो मरजानी’ कहानी संग्रहों में कृष्णा सोबती ने नारी को अश्लीलता की कुंठित राष्ट्र को अभिभूत कर सकने में सक्षम अपसंस्कृति के बल-संबल के साथ ऐसा उभारा है कि साधारण पाठक हतप्रभ तक हो सकता है। ‘सिक्का बदल गया’, ‘बदली बरस गई’ जैसी कहानियाँ भी तेज़ी-तुर्शी में पीछे नहीं। उनकी हिम्मत की दाद देने वालों में अंग्रेज़ी की अश्लीलता के स्पर्श से उत्तेजित सामान्यजन पत्रकारिता एवं मांसलता से प्रतप्त त्वरित लेखन के आचार्य खुशवंत सिंह तक ने सराहा है। पंजाबी कथाकार मूलस्थानों की परिस्थितियों के कारण संस्कारत: मुस्लिम-अभिभूत रहे हैं। दूसरे, हिन्दू-निन्दा नेहरू से अर्जुन सिंह तक बड़े-छोटे नेताओं को प्रभावित करने का लाभप्रद-फलप्रद उपादान भी रही है। नामवर सिंह ने, कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘डार से बिछुड़ी’ और ‘मित्रो मरजानी’ का उल्लेख मात्र किया है और सोबती को उन उपन्यासकारों की पंक्ति में गिनाया है, जिनकी रचनाओं में कहीं वैयक्तिक तो कहीं पारिवारिक-सामाजिक विषमताओं का प्रखर विरोध मिलता है। इन सभी के बावजूद ऐसे समीक्षकों की भी कमी नहीं है, जिन्होंने ‘ज़िन्दगीनामा’ की पर्याप्त प्रशंसा की है। डॉ. देवराज उपाध्याय के अनुसार-‘यदि किसी को पंजाब प्रदेश की संस्कृति, रहन-सहन, चाल-ढाल, रीति-रिवाज की जानकारी प्राप्त करनी हो, इतिहास की बात’ जाननी हो, वहाँ की दन्त कथाओं, प्रचलित लोकोक्तियों तथा 18वीं, 19वीं शताब्दी की प्रवृत्तियों से अवगत होने की इच्छा हो, तो ‘ज़िन्दगीनामा’ से अन्यत्र जाने की ज़रूरत नहीं।
कृष्णा सोबती और विवाद
कृष्णा सोबती की कहानियों को लेकर काफ़ी विवाद हुआ। विवाद का कारण इनकी मांसलता है। स्त्री होकर ऐसा साहसी लेखन करना सभी लेखिकाओं के लिए सम्भव नहीं है। डॉ. रामप्रसाद मिश्र ने कृष्णा सोबती की चर्चा करते हुए दो टूक शब्दों में लिखा है: उनके ‘ज़िन्दगीनामा’ जैसे उपन्यास और ‘मित्रो मरजानी’ जैसे कहानी संग्रहों में मांसलता को भारी उभार दिया गया है। बात यह है कि साधारण शरीर की ‘अकेली’ कृष्णा सोबती हों या नाम निहाल दुकेली मन्नू भंडारी या प्राय: वैसे ही कमलेश्वर अपने से अपने कृतित्व को बचा नहीं पाए। कृष्णा सोबती की जीवनगत यौनकुंठा उनके पात्रों पर छाई रहती है। सोबती 2015 में एक बार फिर चर्चा में आईं जब उन्होंने देश में असहिष्णुता के माहौल से नाराज़ होकर साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस कर दिया था।
93 वर्ष की आयु में हुआ निधन
हिंदी की प्रख्यात लेखिका एवं निबंधकार कृष्णा सोबती का 93 की आयु में 25 जनवरी 2019 को एक अस्पताल में निधन हो गया। उनका अंतिम संस्कार दिल्ली में निगम बोध घाट पर हुआ। पिछले कुछ महीनों में उनकी तबीयत खराब चल रही थी और अक्सर अस्पताल उन्हें आना-जाना पड़ता था। उन्होंने पिछले महीने अस्पताल में ही अपनी नई किताब लॉन्च की थी। अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद वह हमेशा कला, रचनात्मक प्रक्रियाओं और जीवन पर चर्चा करती रहती थी।
कृष्णा सोबती को प्राप्त सम्मान और पुरस्कार
1999 – ‘कथा चूड़ामणि पुरस्कार’
1981 – ‘साहित्य शिरोमणि पुरस्कार’
1982 – ‘हिन्दी अकादमी अवार्ड’
2000-2001 – ‘शलाका सम्मान’
1980 – ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’
1996 – ‘साहित्य अकादमी फ़ेलोशिप’
इसके अतिरिक्त इन्हें ‘मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार’ भी प्राप्त हो चुका हैं।